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सामाजिक कहानियां ,और रौचक तथ्यों से सम्बंधित , और समाज ,एवं पारिवारिक धार्मिक, लोक कथन, सम्बंधित ,खानपान ,अविष्कार ,शिक्षा ,व्यायाम, रोजगार ,आदि लेख
गुरुवार, 25 जनवरी 2024
सकारात्मक रूप से वृद्धि हेतु सोचे, हमेशा सकारात्मक रहें
प्रगति के लिए अपनी सहनशक्ति से ज्ञान और क्षमताओं का पूर्ण दोहन करें
मन शांत होगा तो मस्तिष्क पूरी क्षमता से कार्य करने के लिए तैयार होगा
कार्यशील जीवन में सफलता के दो दुश्मन हैं
धैर्य क्या है, हमारे जीवन में इसका क्या महत्व है?
मंगलवार, 16 जनवरी 2024
लक्ष्य TARGET(myexcelsuper)
गुरुवार, 4 जनवरी 2024
प्रकृति ने पहले से दे रखा था
रविवार, 3 दिसंबर 2023
शराब है कितनी खराब
गुरुवार, 30 नवंबर 2023
आइंस्टीन ने देखा बड़ा खतरा
बुधवार, 29 नवंबर 2023
एक चुप को ही सौ सुख कहते हैं।
सावंत ओफिस काम करने जाता था और उसकी पत्नी बिन्दु घर का काम करती थी। पति-पत्नी दोनों ही गरम स्वभाव के थे। थोड़ी थोड़ी बात पर दोनों मे ठन जाती थी। कभी कभी तो बिन्दु का बना बनाया खाना भी बेकार हो जाता था।
एक दिन बिन्दु अपनी पड़ोसन के घर गई। वहां उसे सयानी पड़ोसन मिली। बातों बातों मे सावंत की घरवाली बिन्दु ने सयानी पड़ोसन को बताया कि मेरे घरवाले का मिजाज बहुत चिड़चिड़ा है वे जब तब मेरे से लड़ते ही रहते हैं। कभी कभी इससे हमारी बनी बनाई रसोई बेकार चली जाती है। सयानी पड़ोसन ने कहा यह कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसा तो हर घर मे होता रहता है। मेरे पास इस की एक अचूक दवा है। जब भी कभी तेरा घरवाला तेरे साथ लड़े, तब तुम उस दवा को अपने मुंह मे रख लेना, इस से तुम्हारा घरवाला अपने आप चुप हो जाएगा।
सयानी पड़ोसन अपने घर के अन्दर गई, एक शीशी भर कर ले आई और उसे दे दी।
सावंत की घरवाली बिन्दु ने घर आ कर दवा की परीक्षा करनी शुरू कर दी जब भी सावंत उस से लड़ता था वह दवा मुंह मे रख लेती थी। इस से काफी असर दिखाई दिया। सावंत का लड़ना काफी कम हो गया था। यह देख कर वह काफी खुश हुई। वह ख़ुशी-ख़ुशी सयानी पड़ोसन के पास गई और कहा आप की दवाई तो कारगर सिद्ध हुई है, आप ने इस मे क्या क्या डाला है जरा बता देना, मे इसे घर मे ही बना लूँगी। बार बार आप से मांगने आना बुरा लगता है।
इस पर सयानी पड़ोसन ने जवाब दिया की जो शीशी मैंने तुम्हे दी थी उस मे शुद्ध जल के सिवाय कुछ भी नहीं था। तुम्हारी समस्या का हल तो तुम्हारे चुप रहने से हुई है। जब तुम दवा यानि की पानी को मुंह मे भर लेती थी तो तुम बोल नहीं सकती थी और तुम्हारी चुप्पी को देख कर तुम्हारे घरवाले का भी क्रोध शांत हो जाता था।
इसी को "एक चुप सौ सुख" कहते हैं।
सयानी पड़ोसन ने सावंत की घरवाली बिन्दु को सीख दी की इस दवा को कभी भूलना मत और अगर किसी को जरूरत पड़े तो आगे भी लेते रहना।
सावंत की घरवाली बिन्दु ने सयानी पड़ोसन की बात को गांठ बांध लिया और ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर वापिस आ गई।
सोमवार, 30 अक्तूबर 2023
महाराज दशरथ इस बात से हमेशा दुःखी और चिंतित रहते थे
महाराज दशरथ इस बात से हमेशा दुःखी और चिंतित रहते थे कि उनका कोई पुत्र नहीं था।
यही सब सोचते-सोचते एक दिन उनके मन में विचार आया कि क्यों न पुत्र प्राप्ति के लिए मैं अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूँ। उन्होंने अपने सभी मंत्रियों को बुलाकर इस बारे में उनसे परामर्श लिया और सबने इसके लिए सहमति दी।
तब दशरथ जी ने अपने मंत्री सुमंत्र से कहा, “तुम शीघ्र जाकर मेरे सभी गुरुजनों व पुरोहितों को यहाँ बुला लाओ।”
कुलपुरोहित महर्षि वसिष्ठ, सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप आदि सबके आ जाने पर महाराज ने उनसे भी अपने मन की बात कही। यह विचार सुनकर वसिष्ठ जी ने इसकी बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कहा, “ महाराज! यह बहुत अच्छा विचार है और चूँकि आपके मन में यह धार्मिक विचार पुत्र प्राप्ति की पवित्र कामना से उत्पन्न हुआ है, अतः आपका यह मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होगा।”
यह सुनकर दशरथ जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मंत्रियों को आज्ञा दी कि सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हो और गुरुजनों की आज्ञा के अनुसार यज्ञ की सारी सामग्री वहाँ एकत्र की जाए। शक्तिशाली वीरों के संरक्षण में एक उपाध्याय सहित अश्व को छोड़ा जाए और सारे विघ्नों का निवारण करने के लिए शान्तिकर्म किया जाए। दशरथ जी ने यह भी कहा कि विद्वान ब्रह्मराक्षस ऐसे यज्ञों में विघ्न उत्पन्न करने का अवसर ढूँढते रहते हैं, इसलिए इस बात का पूरा ध्यान रखा जाए कि यज्ञ में कोई विघ्न न डाल सके और यज्ञ के सभी कार्य पूरे विधि-विधान के अनुसार संपन्न हों क्योंकि विधिहीन यज्ञ करने वाला यजमान अवश्य ही नष्ट हो जाता है।
यह आज्ञा पाकर सभी मंत्रीगण अपने-अपने कार्य के लिए चले गए और गुरुजनों ने भी दशरथ जी से विदा ली।
अब महाराज ने अपने महल में जाकर रानियों को बताया, “देवियों! दीक्षा ग्रहण करो। मैं पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करूँगा।” यह सुनकर रानियों को बहुत प्रसन्नता हुई।
कुछ समय बाद एकांत पाकर सुमंत्र ने दशरथ जी से कहा, “महाराज! महर्षि कश्यप के पुत्र विभाण्डक हैं और उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग हैं जो कि वेदों के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हैं। उनका विवाह आपके मित्र व अंगदेश के राजा रोमपाद की पुत्री शांता से हुआ है। यदि महर्षि ऋष्यश्रृंग आकर आपका यह यज्ञ संपन्न करें, तो आपका मनोरथ अवश्य ही सफल होगा क्योंकि भगवान सनत्कुमार ने भी बहुत पहले ही ऐसी भविष्यवाणी की है। अतः आप स्वयं अंगदेश में जाकर महर्षि ऋष्यश्रृंग को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आइए।
यह सलाह सुनकर राजा दशरथ को बहुत हर्ष हुआ। उन्होंने वसिष्ठजी से परामर्श किया और फिर अपनी रानियों तथा मंत्रियों के साथ अंगदेश को गए। वहाँ के राजा से उनकी गहरी मित्रता थी। अपने मित्र के यहाँ सात-आठ दिन बिताने के बाद दशरथ जी ने उनसे कहा कि ‘अयोध्या में एक बहुत आवश्यक कार्य आ पड़ा है, इसलिए महर्षि ऋष्यश्रृंग व उनकी पत्नी शांता को मेरे साथ अयोध्या जाने की अनुमति दें।’ इस प्रकार उन दोनों को साथ लेकर महाराज दशरथ अयोध्या लौटे।
बहुत समय बीत जाने के बाद वसंत ऋतु का आगमन हुआ। तब एक अच्छा मुहूर्त देखकर दशरथ जी ने यज्ञ करने का अपना विचार महर्षि ऋष्यश्रृंग को बताया और यज्ञ करवाने के लिए उनसे प्रार्थना की। महर्षि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। अब यज्ञ के अश्व को छोड़ा गया और इधर राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु वसिष्ठ जी से यज्ञ की तैयारी के लिए मार्गदर्शन माँगा।
तब वसिष्ठ जी ने यज्ञ के कार्यों में निपुण व यज्ञविषयक शिल्पकर्म में कुशल कारीगरों, बढ़इयों, शिल्पकारों, भूमि खोदने वालों, ज्योतिषियों, नटों, नर्तकियों, शास्त्रवेत्ताओं और सेवकों आदि सबको बुलवाया और उनसे यज्ञ के लिए आवश्यक प्रबंध करने को कहा।
उनके आदेश पर शीघ्र ही हजारों ईंटें यज्ञ-स्थल पर लाई गईं। यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए देश-विदेश से आने वाले राजाओं के ठहरने के लिए अनेक महल बनाने की आवश्यकता थी। यज्ञ में आने वाले ब्राह्मणों और अन्य प्रजाजनों के निवास और भोजन के लिए भी अनेक घर बनाए जाने थे। घोड़ों और हाथियों के लिए भी अस्तबल बनाने थे और सैनिकों के लिए छावनियाँ बनाई जानी थीं। वसिष्ठ जी ने यह भी आदेश दिया कि इन सभी स्थानों पर लोगों के भोजन और विश्राम की बहुत अच्छी व्यवस्था की जानी चाहिए। वह भोजन सबको सत्कारपूर्वक दिया जाना चाहिए, किसी की अवहेलना नहीं होनी चाहिए। क्रोध के कारण किसी का अपमान न किया जाए और जो शिल्पी तथा सेवक वहाँ कार्यरत हैं, उन सबके पारिश्रमिक व भोजन की भी उचित व्यवस्था हो।
इन सब बातों के बाद वसिष्ठ जी ने सुमंत्र को बुलावाया और उनसे कहा कि इस पृथ्वी के सभी धार्मिक राजाओं को और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र, सभी वर्णों के लोगों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया जाए।
अयोध्या नगरी थी
वाल्मीकि रामायण (भाग 1)
सरयू नदी के किनारे पर कौशल नामक एक बहुत बड़ा और प्रसिद्ध राज्य था। उसमें अयोध्या नामक एक बहुत प्रसिद्ध नगरी थी।
इस महानगरी अयोध्या की लंबाई बारह योजन और चौड़ाई तीन योजन थी। इसमें कई प्रकार के अलग अलग बाजार थे, और उनमें सब प्रकार के यन्त्र और अस्त्र शस्त्र संचित थे। अयोध्या में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे। नगर में ऊंची ऊंची इमारतें थीं, और बड़े बड़े फाटक व किवाड़ थे। चारों ओर उद्यान व आमों के बगीचे थे।
अयोध्या की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या उसे लांघना बहुत कठिन था। अयोध्या को जीतना किसी भी योद्धा के लिए संभव न था। उस नगर में हाथी, घोड़े, गाय बैल, ऊंट आदि सभी प्रकार के उपयोगी पशु बड़ी संख्या में उपलब्ध थे।
अयोध्या में इतनी समृद्धि थी कि उसके महलों के निर्माण में भी कई प्रकार के रत्नों का उपयोग हुआ था और दीवारों पर सोने का पानी चढ़ाया हुआ था। यह नगर समतल भूमि पर बसा हुआ था और चावल से भरपूर था। वहां के पानी की मिठास भी अद्भुत थी। विभिन्न राज्यों के व्यापारी यहां व्यापार के लिए आते थे और उत्तम गुणों से संपन्न और सभी वेदों में पारंगत विद्वान ब्राह्मण भी वहां थे। हजारों बलशाली, वीर और कुशल योद्धा व महारथी इस अयोध्या नगरी में निवास करते थे।
अयोध्या में कोई भी दुखी, पीड़ित, शोषित, वंचित, चोर या लालची नहीं था। वहां कोई कंजूस, क्रूर, मूर्ख या नास्तिक भी नहीं था। अपवित्र अन्न को खाने वाला या साफ सुथरा न रहने वाला कोई व्यक्ति भी अयोध्या में नहीं था।
वहां ऐसा कोई परिवार नहीं था, जिसके पास गाय, बैल, घोड़े, अनाज या धन संपत्ति का कोई अभाव हो। बिना आभूषणों वाला कोई व्यक्ति वहां दिखाई नहीं पड़ता था। यज्ञ न करने वाला या अपने कर्तव्य में कोई कमी रखने वाला भी अयोध्या में कोई नहीं था।
इक्ष्वाकु वंश के महाराज दशरथ इस अद्वितीय नगरी के शासक व रक्षक थे। वे दूरदर्शी, धर्मपरायण और महापराक्रमी थे। वे प्रजा का पालन परिवार की भांति ही करते थे और प्रजा भी उनसे बिल्कुल वैसा ही प्रेम करती थी।
महाराजा दशरथ के आठ कुशल मंत्री थे - धृष्टि, जयन्त, विजय, सुरष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र। महर्षि वसिष्ठ और वामदेव उनके ऋत्विज (पुरोहित) थे।
राजा के सभी मंत्री बहुत व्यवहारकुशल, योग्य और निष्पक्ष थे। कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली जा चुकी थी। अपने गुप्तचरों के द्वारा राजा को शत्रु पक्ष के राजाओं की पूरी जानकारी भी मिलती रहती थी।
लेकिन सब कुछ होते हुए भी महाराज दशरथ केवल इस एक बात के लिए सदा दुखी और चिंतित रहते थे कि उनका कोई पुत्र नहीं था...
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
जय सीताराम
भाग्य से बड़ा कोई नहीं
एक गाँव में एक काफी धनवान सेठ रहते थे, नाम था जिनका संपत राव धन-सम्पदा, एशो-आराम की उनको कोई कमी न थी, परन्तु पुत्र सुख उनके भाग में न था, बड़े जतन, पूजा-पाठ करने के बाद सेठानी को पुत्री हुई, सेठ जी ने अपनी पुत्री को ही बड़े लाड-प्यार से एक पुत्र की तरह पाल-पोस कर बड़ा किया, सेठानी हमेशा सेठ जी को एक पुत्र गोद लेने का कहती लेकिन सेठ जी पुत्र सुख उनके भाग्य में न होने की बात कहकर सेठानी जी की बात टाल जाते।
हर बेटी की तरह सेठ जी की बेटी भी शादी योग्य हुई और तय समय पर शुभ मुहूर्त देखकर सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी धनवान व्यक्ति से कर दी, परन्तु बेटी के भाग्य में धन सुख न था, शादी के कुछ समय बाद ही बेटी का पति जुआरी, शराबी निकल गया और शराब और जुए में उसकी सारी धन-सम्पदा समाप्त हो गई।
बेटी को इस तरह दुखी देखकर सेठानी जी भी दुखी होती, एक दिन सेठानी जी ने सेठ जी के पास जाकर अपनी बेटी के दुःख पर चिंता जताते हुए कहा, “आप दुनिया की मदद करते हो लेकिन यहाँ हमारी खुद की बेटी दुखी है, आप उसकी मदद क्यों नहीं करते ?
सेठ जी भी बेटी के दुःख से दुखी थे लेकिन वे जानते थे की जिस तरह उनके भाग्य में पुत्र प्राप्ति नहीं थी ठीक उसी तरह बेटी के भाग्य में भी अभी सुख नहीं है, उन्होंने सेठानी जी को समझाते हुए कहा, “भाग्यवान! अभी उसके भाग्य में सुख नहीं लिखा है, जब उसका भाग्य उदय होगा तो अपने आप सब मदद को तैयार हो जाएँगे और खोई हुई धन-सम्पदा फिर से प्राप्त हो जाएगी, लेकिन सेठानी जी को तो अपनी बेटी के दुःख की चिंता खाए जा रही थी।
एक दिन सेठ जी किसी काम से दुसरे शहर गए हुए थे, तभी उनके दामाद का सेठ जी के घर आना हुआ, सेठानी जी ने बड़ी आव-भगत से अपने दामाद का आदर किया और उन्हें स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करवाया, तभी उनके मन में बेटी की मदद करने का विचार मन में आया और उन्होंने सोचा क्यों न मोतीचूर के लड्डुओं के बिच में सोने की अशर्फियाँ रखकर बेटी के घर भिजवा दी जाए।
बस सेठानी जी के सोचने भर की देर थी, उन्होंने जल्दी से मोतीचूर के लड्डू बनाए और एक-एक सोने की अशर्फी लड्डुओं के बिच रखकर दामाद को टिका लगाकर देशी घी के लड्डू जिनमे अशर्फियाँ थी देकर विदा किया, लड्डू लेकर दामाद जी घर की और निकले, रास्ते में उन्हें एक मिठाइयों की दुकान दिखाई दि, दामाद जी ने सोचा इतना वजन कौन घर लेकर जाए, क्यों न लड्डू मिठाई की दुकान पर बेच दिए जाए।
बस फिर क्या था, दामाद जी के सोचने भर की देर थी, उन्होंने लड्डुओं से भरी थैली मिठाई की दुकान पर बेचकर नगद पैसे ले लिए और खुश होकर घर की और निकल पड़े।
उधर सेठ जी बाहर से आए तो उन्होंने सोचा क्यों न घर के लिए देसी घी के मोतीचूर के लड्डू ले चलू, सेठ जी दुकान पर गए और दुकानदार से लड्डू मांगे, दुकानदार ने सेठ जी को लड्डु दे दिए।
लड्डू लेकर सेठ जी घर आए और लड्डुओं की थैली सेठानी जी को दे दी, सेठानी जी ने अपने बनाए लड्डुओं को पहचान लिया और फोड़कर देख तो उनमे से अशर्फियाँ निकली, अशर्फियाँ देख सेठानी जी ने माथा पकड़ लिया और बेटी की मदद करने के लिए दामाद जी को लड्डुओं में अशर्फियाँ छुपाकर देने की बात सेठ जी को बताई।
सेठानी जी की बात सुनकर सेठ जी ने कहा, “भाग्यवान! मैं न कहता था कि अभी धन सुख उसके भाग्य में नहीं है इसलिए तुम्हारी दी गई अशर्फियाँ फिर से घूम-फिर कर तुम्हारे पास ही आ गई”
इसलिए कहते हैं, “भाग्य से बड़ा कोई नहीं, जो इन्सान के भाग्य में लिखा होता है उसे वही सब मिलता है..!!”
शनिवार, 23 सितंबर 2023
मंजिल कठिन है
जिस दिन एक अदद नौकरी पा लेने का
महूर्त होगा,
मंजिल कठिन है,
लेकिन सफर का अलग ही मज़ा होगा,
घरवालों के चेहरे पर
एक अलग ही नूर होगा,
तुम टाइड, सरफ से धुलाई हुई
चमकदार दिखोगे,
अगर शादीशुदा नहीं हो तो लडके वाले
को वजनदार लगोगे,
मोहल्ले भर में तुमहारी सरकारी
नौकरी की धूम मचेगी,
पापा देखना खुश हो कर यही कहेंगे,
वाह बेटी वाह,
हालांकि यह परीक्षाएं कठिन होंगी,
लेकिन कया पता नौकरी भी ढंग की देगी,
मुश्किलों से तुम नहीं डरना,
खत्म हो जाऐंगे लडने से,
बस तुम संभाल लेना,
मौका बड़ा है,
और बात अब अस्तित्व की है,
इसलिए दिखा दो कि तुम घर परिवार के साथ
काम भी संभाल लोगी,
शिक्षित मनुष्य बन कर
जग में अशिक्षा का अंधेरा मिटाओगी...
इन्सान की परेशानियों की सिर्फ दो ही वजह है
वह तक़दीर से ज्यादा चाहता है
और वक्त से पहले चाहता है!
जब तक रास्ते समझ में आते है,
तब तक 'लौटने का वक़्त' हो जाता है
इसीलिए कहते हैं कि:-
मिट्टी से भी यारी रख, दिल से दिलदारी रख,
चोट ना पहुँचे बातों से,इतनी समझदारी रख,
पहचान हो तेरी हटकर,भीड़ में कलाकारी रख,
पलभर ये जोश जवानी का,बुढ़ापे की भी तैयारी रख,
दिल सबसे मिलता नहीं,फिर भी ज़ुबान प्यारी रख
मंगलवार, 1 अगस्त 2023
चिंतन आवश्यक है।
एक महिला रोज मंदिर जाती थी। एक दिन उस महिला ने पुजारी जी से कहा कि अब के से मैं मंदिर नही आया करूँगी।
इस पर पुजारी जी ने पूछा-क्यों
तब महिला बोली -मैं हमेशा देखती रहती हूँ कि लोग मंदिर परिसर में अपने फोन से अपने व्यापार की बात करते हैं।कुछ ने तो मंदिर को ही अपनी गपशप करने का स्थान चुन रखा है।कुछ पूजा कम पाखंड व दिखावा ज्यादा करते हैं।
इस पर पुजारी जी कुछ देर तक चुप रहे फिर बोले-आप सही कह रही हैं। परंतु अपना अंतिम निर्णय लेने से पहले क्या आप मेरे कहने से कुछ कर सकती हैं।
महिला बोली -आप बताइए क्या करना है
पुजारी ने कहा -- एक गिलास पानी भर लीजिए और 2 बार मंदिर परिसर के अंदर परिक्रमा लगाइए। शर्त यह है कि गिलास का पानी गिरना नहीं चाहिए।
महिला बोली-मैं ऐसा कर सकती हूँ।
फिर थोड़ी ही देर में उस महिला ने ऐसा ही कर दिखाया। उसके बाद मंदिर के पुजारी ने महिला से 3 सवाल पूछे -
1 - क्या आपने किसी को फोन पर बात करते देखा
2 - क्या आपने किसी को मंदिर में गपशप करते देखा
3 - क्या किसी को पाखंड करते देखा
महिला बोली -- नहीं मैंने कुछ भी नहीं देखा।
फिर पुजारी बोले-जब आप परिक्रमा लगा रहीं थी तो आपका पूरा ध्यान गिलास पर ही था कि इसमें से कहीं पानी बाहर न गिर जाए इसलिए आपको कुछ दिखाई नहीं दिया।
अब जब भी आप मंदिर आऍं तो अपना ध्यान सिर्फ़ परम पिता परमात्मा में ही लगाएँ,फिर आपको कुछ दिखाई नहीं देगा| सिर्फ भगवान ही सर्वत्र दिखाई देगें
जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत देखहि तिन तैसी।।
जीवन में दुखों के लिए कौन जिम्मेदार है?
ना भगवान
ना गृह-नक्षत्र
ना भाग्य
ना रिश्तेदार
ना पड़ोसी
ना सरकार
जिम्मेदार हम स्वयं हैं क्योंकि
1) - आपका सिरदर्द, फालतू विचार का परिणाम
2) - पेट दर्द, गलत खाने का परिणाम
3) - आपका कर्ज, जरूरत से ज्यादा खर्चे का परिणाम
4) - आपका दुर्बल /मोटा /बीमार शरीर, गलत जीवन शैली का परिणाम
5) आपके कोर्ट केस, आप के अहंकार का परिणाम
6) आपके फालतू विवाद, ज्यादा व व्यर्थ बोलने का परिणाम
उपरोक्त कारणों के अलावा सैकड़ों कारण है और बेवजह दोषारोपण हम दूसरों पर कर रहे हैं। इसमें ईश्वर दोषी नहीं है|
चिंतन करतें रहें...श्री राम जय राम कहते रहें...
राजा भोज और सत्य
एक दिन राजा भोज गहरी निद्रा में सोये हुए थे। उन्हें उनके स्वप्न में एक अत्यंत तेजस्वी वृद्ध पुरुष के दर्शन हुए।
राजन ने उनसे पुछा- “महात्मन! आप कौन हैं?”
वृद्ध ने कहा- “राजन मैं सत्य हूँ और तुझे तेरे कार्यों का वास्तविक रूप दिखाने आया हूँ। मेरे पीछे-पीछे चल आ और अपने कार्यों की वास्तविकता को देख!”
राजा भोज उस वृद्ध के पीछे-पीछे चल दिए। राजा भोज बहुत दान, पुण्य, यज्ञ, व्रत, तीर्थ, कथा-कीर्तन करते थे, उन्होंने अनेक तालाब, मंदिर, कुँए, बगीचे आदि भी बनवाए थे। राजा के मन में इन कार्यों के कारण अभिमान आ गया था। वृद्ध पुरुष के रूप में आये सत्य ने राजा भोज को अपने साथ उनकी कृतियों के पास ले गए। वहाँ जैसे ही सत्य ने पेड़ों को छुआ, सब एक-एक करके सूख गए, बागीचे बंज़र भूमि में बदल गए । राजा इतना देखते ही आश्चर्यचकित रह गया।। फिर सत्य राजा को मंदिर ले गया। सत्य ने जैसे ही मंदिर को छुआ, वह खँडहर में बदल गया। वृद्ध पुरुष ने राजा के यज्ञ, तीर्थ, कथा, पूजन, दान आदि के लिए बने स्थानों, व्यक्तियों, आदि चीजों को ज्यों ही छुआ, वे सब राख हो गए।।राजा यह सब देखकर विक्षिप्त-सा हो गया।
सत्य ने कहा-“ राजन! यश की इच्छा के लिए जो कार्य किये जाते हैं, उनसे केवल अहंकार की पुष्टि होती है, धर्म का निर्वहन नहीं।। सच्ची सदभावना से निस्वार्थ होकर कर्तव्यभाव से जो कार्य किये जाते हैं, उन्हीं का फल पुण्य के रूप मिलता है और यह पुण्य फल का रहस्य है।”
इतना कहकर सत्य अंतर्धान हो गए। राजा ने निद्रा टूटने पर गहरा विचार किया और सच्ची भावना से कर्म करना प्रारंभ किया ,जिसके बल पर उन्हें ना सिर्फ यश-कीर्ति की प्राप्ति हुए बल्कि उन्होंने बहुत पुण्य भी कमाया।
शिक्षा🪷
मित्रों , सच ही तो है , सिर्फ प्रसिद्धि और आदर पाने के नज़रिये से किया गया काम पुण्य नहीं देता। हमने देखा है कई बार लोग सिर्फ अखबारों और न्यूज़ चैनल्स पर आने के लिए झाड़ू उठा लेते हैं या किसी गरीब बस्ती का दौरा कर लेते हैं,ऐसा करना पुण्य नहीं दे सकता,असली पुण्य तो हृदय से की गयी सेवा से ही उपजता है,फिर वो चाहे हज़ारों लोगों की की गयी हो या बस किसी एक व्यक्ति की..!
जय श्री राधेकृष्ण
शनिवार, 29 जुलाई 2023
लोभ नर्क का द्वार है
एक बड़ा जमींदार था। उसके मन में आया कि अपनी कुछ जमीन गरीबों को बांटनी चाहिये। एक लोभी मनुष्य उसके पास पहुंचा और कहने लगा, “मुझे जमीन चाहिये।” जमींदार ने कहा, “ठीक बात है, सूर्योदय से चलना प्रारंभ करो। सूर्यास्त तक वहीं वापस लौटो। उस घेरे में जितनी भी जमीन आ जायगी, वह सब तुम्हारी होगी।”
प्रारंभ के स्थान पर निशान गाडकर वह आदमी चलने लगा। उसने सोचा कि बड़ा लम्बा घेरा लूंगा तब बहुत अधिक जमीन मिलेगी। वह दौड़ा बिना रुके, बिना विश्राम किये वह दौड़ता रहा। भोजन तो क्या उसने पानी तक नहीं पिया। अभी वह बिना मुड़े आगे ही बढ़ता जा रहा था। जब सूरज भगवान अस्ताचल की ओर झुके, तब वह घबराया। मैं तो बहुत दूर चला आया हूं, अब सूर्यास्त के पूर्व प्रारंभ के स्थान पर भला कैसे पहुंचूंगा ? वहां तक नहीं पहुंचूंगा तो घेरा अधूरा रह जायगा और मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा। इस कल्पना मात्र से वह बहुत व्यथित हुआ और भूखा प्यासा होते हुए भी वह जी जान से दौड़ने लगा। वह हांफने लगा। उसके पैर लड़खड़ाने लगे। उधर सूर्यास्त हो रहा था, इधर इस आदमी के प्राण भी अस्त हो रहे थे। वह मूर्च्छित हुआ और शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हुआ।
लोगों को जब पता चला तब वे वहां आ पहुंचे। उसे श्मशान में ले जाया गया। उसे गाड़ने के लिये केवल साढ़े तीन हाथ जगह पर्याप्त रही।
*शिक्षा:-*
हमें लालच नहीं करना चाहिए। जितना हमें प्राप्त है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। लोभ-लालच के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, इससे अनिष्ट ही होता है..!!
सदैव प्रसन्न रहिये - जो प्राप्त है, पर्याप्त है।
जिसका मन मस्त है - उसके पास समस्त है।।
माता-पिता का ऋण
एक छोटे बालक को आम का पेड़ बहुत पसंद था। जब भी फुरसत मिलती वो तुरंत आम के पेड के पास पहुंच जाता। पेड के ऊपर चढ़ना, आम खाना और खेलते हुए थक जाने पर आम की छाया मे ही सो जाना। बालक और उस पेड के बीच एक अनोखा संबंध बंध गया था।
बच्चा जैसे जैसे बडा होता गया वैसे वैसे उसने पेड़ के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंध हो गया। आम का पेड उस बालक को याद कर के अकेला रोता रहता।
एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी और आते देखा। आम का पेड़ खुश हो गया।
बालक जैसे ही पास आया की तुरंत पेड ने कहा, "तु कहां चला गया था? मै हर दिन तुम्हें याद किया करता था। चलो आज दोनो खेलते है।"
बच्चा अब बड़ा हो चुका था, उसने आम के पेड़ से कहा, अब मेरी खेलने की उम्र नही है। मुझे पढ़ना है पर मेरे पास फीस भरने के लिए पैसे नही है।"
पेड़ ने कहा, "तु मेरे आम लेकर बाजार मे जा और बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।"
उस बच्चे ने आम के पेड़ से सारे आम उतार लिए और वहा से चला गया।
उसके बाद फिर कभी वो दिखाई नही दिया। आम का पेड़ उसकी राह देखता। एक दिन अचानक फिर वो आया और कहा, अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है, मेरा संसार तो चल रहा है पर मुझे मेरा अपना घर बनाना है इसके लिए मेरे पास पैसे नहीं है।"
आम के पेड़ ने कहा, "चिंता मत कर मेरी सभी डाली को काट कर ले जा, उसमे से तेरा घर बना ले।"
उस जवाने पेड़ की सभी डालियां काट ली और चला गया।
आम का पेड अब बिल्कुल बंजर हो गया था। कोई उसके सामने भी नही देखता था। पेड ने भी अब वो बालक/ जवान उसके पास फिर आयेगा यह आशा छोड दी थी।
एक दिन एक वृद्ध वहां आया। उसने आम के पेड से कहा, "आपने मुझे नहीं पहचाना, पर मैं वही बालक हूँ जो बारबार आपके पास आता और आप उसे मदद करते थे।"
आम के पेड़ ने दु:ख के साथ कहा, "पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुझे दे सकूँ।"
वृद्ध ने आँखों मे आंसूओं के साथ कहा, "आज कुछ लेने नहीं आया हूं,आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है,आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"
इतना कहते वो रोते रोते आम के पेड़ से लिपट गया और आम के पेड़ की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।
सार:- वृक्ष हमारे माता-पिता समान है, जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था। जैसे जैसे बड़े होते गए उनसे दूर होते गए।
पास तब आये जब जब कोई जरूरत पड़ी, कोई समस्या खड़ी हुई।
आज भी वे उस बंजर पेड़ की तरह राह देख रहे है। आओ हम जाके उनको लिपटे उनके गले लग जाए जिससे उनकी वृद्धावस्था फिर से अंकुरित हो जाए।
यह कहानी पढ़ कर थोड़ा सा भी एहसास हुआ हो और अगर अपने माता-पिता से थोड़ा भी प्यार करते हो तो कभी उनको छोड़ेंगे नही..!!
दान का भाव
एक शिव मंदिर के पुजारी जी को भोले नाथ ने सपने में दर्शन दिए औऱ कहा कि कल सुबह नगर के सभी भक्तों, विद्वानों, दान-पुण्य करने वालों और साधु-महात्माओं को मंदिर में जमा करो।
पुजारी ने शहर में मुनादी करा दी कि महादेव का ऐसा आदेश है. शहर के सारे गणमान्य लोग अगली सुबह मंदिर पहुंचे।
पूजा-अर्चना हुई और पुजारी जी ने विस्तार से स्वप्न बताया तभी मंदिर में एक अद्भुत तेज प्रकाश हुआ. लोगों की आंखें चौंधिया गईं।
जब प्रकाश कम हुआ तो लोगों ने देखा कि शिवलिंग के पास एक रत्नजड़ित सोने का पात्र है. उसके रत्नों में दिव्य प्रकाश की चमक थी. उस पर लिखा था कि सबसे बड़े दयालु और पुण्यात्मा के लिए यह उपहार है।
पुजारी जी ने वह पात्र सबको दिखाया. वह बोले-प्रत्येक सोमवार को यहां विद्वानों की सभा होगी. जो स्वयं को सबसे बड़ा धर्मात्मा सिद्ध कर देगा, यह स्वर्णपात्र उसका होगा।
देश भर में चारों ओर यह समाचार फैल गया. दूर-दूर से तपस्वी, त्यागी, व्रती, दान-पुण्य करने वाले लोग काशी आने लगे।
एक तपस्वी ने कई महीने लगातार चन्द्रायण व्रत किया था. वह उस स्वर्ण पात्र को लेने आए. जब स्वर्ण पात्र उन्हें दिया गया, उनके हाथ में जाते ही वह मिट्टी का हो गया. उसकी ज्योति नष्ट हो गई।
लज्जित होकर उन्होंने स्वर्ण पात्र लौटा दिया. पुजारी के हाथ में जाते ही वह फिर सोने का हो गया और रत्न चमकने लगे।
एक धर्मात्मा ने बहुत से विद्यालय बनवाये थे, कई सेवाश्रम चलाते थे। दान करते-करते उन्होंने काफी धन खर्च कर दिया था. बहुत सी संस्थाओं को दान देते थे।
अखबारों में नाम छपता था. वह भी स्वर्ण पात्र लेने आए किन्तु उनके हाथ में भी जाकर मिट्टी का हो गया।
पुजारी ने कहा- ऐसा लगता है कि आप पद, मान या यश के लोभ से दान करते जान पड़ते हैं. नाम की इच्छा से होने वाला दान सच्चा दान नहीं है।
इसी प्रकार बहुत से लोग आए, किन्तु कोई भी स्वर्ण पात्र पा नहीं सका. सबके हाथों में वह मिट्टी का हो जाता था।
कई महीने बीत गए. बहुत से लोग स्वर्ण पात्र पाने के लोभ से भगवान के मंदिर के आस पास ही ज्यादा दान-पुण्य करने लगे।
लालच की पट्टी पड़ गई थी और मूर्खता वश यह सोचने लगे कि शायद मंदिर के पास का दान प्रभु की नजरों में आए. स्वर्ण पात्र उन्हें भी नहीं मिला।
एक दिन एक बूढ़ा किसान भोले नाथ के दर्शन को आया. उसे इस पात्र की बात पता भी न थी. गरीब देहाती किसान था तो कपड़े भी मैले और फटे थे.उसके पास कपड़े में बंधा थोड़ा सत्तू और एक फटा कम्बल था।
लोग मन्दिर के पास गरीबों को कपड़े और पूरी मिठाई बांट रहे थे; किन्तु एक कोढ़ी मन्दिर से दूर पड़ा कराह रहा था. उससे उठा नहीं जाता था. सारे शरीर में घाव थे, कोढ़ी भूखा था लेकिन उसकी ओर कोई देखता तक नहीं था।
किसान को कोढ़ी पर दया आ गयी. उसने अपना सत्तू उसे खाने को दे दिया और कम्बल उसे ओढ़ा दिया. फिर वह मन्दिर में दर्शन करने आया।
मन्दिर के पुजारी ने अब नियम बना लिया था कि सोमवार को जितने यात्री दर्शन करने आते थे, सबके हाथ में एक बार वह स्वर्ण पात्र जरूर रखते थे।
किसान जब दर्शन करके निकला तो उसके हाथ में भी स्वर्ण पात्र रख दिया. उसके हाथ में जाते ही स्वर्णपात्र में जड़े रत्न पहले से भी ज्यादा प्रकाश के साथ चमकने लगे. यह तो कमाल हो गया था. सब लोग बूढ़े व्यक्ति की प्रशंसा करने लगे।
पुजारी ने कहा- जो निर्लोभ है, दीनों पर दया करता है, जो बिना किसी स्वार्थ के दान करता है और दुखियों की सेवा करता है, वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा है।
किसान तुमने अपने सामर्थ्य से अधिक दान किया है. इसलिए महादेव के इस उपहार के तुम अधिकारी हो।
दान का रहस्य निस्वार्थ दान में है. कभी ये न सोचे की मुझे इस दान से क्या लाभ प्राप्त होगा. दान करते समय अपने आप को उस परमात्मा का सेवक समझे।
हम अक्सर सोचते हैं कि यदि हम भी बहुत ज्यादा संपत्ति वाले होते तो इतना दान करते, अमुक पुण्य कर्म करते।
दान शीलता के भाव का संपत्ति से कोई सरोकार नहीं. यदि आपके मन में दान का भाव है तो सूखी रोटी में से एक टुकड़ा जरूरत मंद को देंगे।
आपने अरब पतियों को गरीब दुखियारे का हक डकारते हुए भी देखा हो. यही संचित कर्म तय करते हैं कि अगले जन्म में आपकी क्या गति होगी. पुण्य संचित करिए।
ॐ नमः शिवाय
बस सात दिन
एक बार की बात है -
संत तुकाराम अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी उनका एक शिष्य,
जो स्वभाव से थोड़ा क्रोधी था
उनके समक्ष आया और बोला: गुरूजी, आप कैसे अपना व्यवहार इतना मधुर बनाये रहते हैं, ना आप किसी पे क्रोध करते हैं और ना ही किसी को कुछ भला-बुरा कहते हैं?
कृपया अपने इस अच्छे व्यवहार का
रहस्य बताइए?
संत बोले: मुझे अपने रहस्य के बारे में तो नहीं पता, पर मैं तुम्हारा रहस्य जानता हूँ!
मेरा रहस्य! वह क्या है गुरु जी?:
शिष्य ने आश्चर्य से पूछा।
तुम अगले एक हफ्ते में मरने वाले हो!
संत तुकाराम दुखी होते हुए बोले।
कोई और कहता तो शिष्य ये बात मजाक में टाल सकता था, पर स्वयं संत तुकाराम के मुख से निकली बात को कोई कैसे काट सकता था?
शिष्य उदास हो गया और गुरु का आशीर्वाद ले वहां से चला गया।
उस समय से शिष्य का स्वभाव बिलकुल बदल सा गया। वह हर किसी से प्रेम से मिलता और कभी किसी पे क्रोध न करता, अपना ज्यादातर समय ध्यान और पूजा में लगाता। वह उनके पास भी जाता जिससे उसने कभी गलत व्यवहार किया था और उनसे माफ़ी मांगता।
देखते-देखते संत की भविष्यवाणी को एक हफ्ते पूरे होने को आये।
शिष्य ने सोचा चलो एक आखिरी बार गुरु के दर्शन कर आशीर्वाद ले लेते हैं।
वह उनके समक्ष पहुंचा और बोला: गुरुजी, मेरा समय पूरा होने वाला है,
कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये!
मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है पुत्र। अच्छा, ये बताओ कि पिछले सात दिन कैसे बीते? क्या तुम पहले की तरह ही लोगों से नाराज हुए, उन्हें अपशब्द कहे?: संत तुकाराम ने प्रश्न किया।
नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ सात दिन थे, मैं इसे बेकार की बातों में कैसे गँवा सकता था?
मैं तो सबसे प्रेम से मिला,
और जिन लोगों का कभी दिल दुखाया था उनसे क्षमा भी मांगी: शिष्य तत्परता से बोला।
संत तुकाराम मुस्कुराए और बोले, बस यही तो मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है। मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी मर सकता हूँ, इसलिए मैं हर किसी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हूँ,
और यही मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है।
शिष्य समझ गया कि संत तुकाराम ने उसे जीवन का यह पाठ पढ़ाने के लिए ही मृत्यु का भय दिखाया था।
वास्तव में हमारे पास भी
सात दिन ही बचें हैं:
रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि, आठवां दिन तो बना ही नहीं है। परिवर्तन आज से आरम्भ करें
जय श्रीराम
मन में अहंकार
एक राजा अपनी वीरता और सुशासन के लिए प्रसिद्द था। एक बार वो अपने गुरु के साथ भ्रमण कर रहा था, राज्य की समृद्धि और खुशहाली देखकर उसके भीतर घमंड के भाव आने लगे, और वो मन ही मन सोचने लगे, “सचमुच, मैं एक महान राजा हूँ, मैं कितने अच्छे से अपने प्रजा देखभाल करता हूँ !”
गुरु सर्वज्ञानी थे, वे तुरंत ही अपने शिष्य के भावों को समझ गए और तत्काल उसे सुधारने का निर्णय लिया।
रास्ते में ही एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था, गुरु जी ने सैनिकों को उसे तोड़ने का निर्देश दिया।
जैसे ही सैनिकों ने पत्थर के दो टुकड़े किये एक अविश्वश्नीय दृश्य दिखा , पत्थर के बीचो-बीच कुछ पानी जमा था और उसमे एक छोटा सा मेंढक रह रहा था। पत्थर टूटते ही वो अपनी कैद से निकल कर भागा। सब अचरज में थे की आखिर वो इस तरह कैसे कैद हो गया और इस स्थिति में भी वो अब तक जीवित कैसे था ?
अब गुरु जी राजा की तरफ पलटे और पुछा, “अगर आप ऐसा सोचते हैं कि आप इस राज्य में हर किसी का ध्यान रख रहे हैं, सबको पाल-पोष रहे हैं, तो बताइये पत्थरों के बीच फंसे उस मेंढक का ध्यान कौन रख रहा था.. बताइये कौन है इस मेंढक का रखवाला ?”
राजा को अपनी गलती का एहसास हो चुका था, उसने अपने अभिमान पर पछतावा होने लगा, गुरु की कृपा से वे जान चुका था कि वो ईश्वर ही है जिसने हर एक जीव को बनाया है और वही है जो सबका ध्यान रखता है।
शिक्षा:-
मित्रों, कई बार अच्छा काम करने पर मिलने वाले यश और प्रसिद्धि से लोगों के मन में अहंकार घर कर जाता है और अंततः यही उनके अपयश और दुर्गति का कारण बनता है। अतः हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम चाहे इस जीवन में किसी भी मुकाम पर पहुँच जाएं कभी घमंड न करें और सदा अपने अर्थपूर्ण जीवन के लिए उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के कृतज्ञ रहें..!!
जय श्री कृष्णा
संसार आपकी दृष्टि के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है
संसार आपकी दृष्टि के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। और परमात्मा भी आपकी दृष्टि के ही अनुभव में उतरेगा; आपके दृष्टि के परिवर्तन में उतरेगा।
क्रांति चाहिए आंतरिक, भीतरी, स्वयं को बदलने वाली। भागने में समय खराब करने की कोई भी जरूरत नहीं है। भागने में व्यर्थ उलझने की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार परमात्मा को पाने का अवसर है; एक मौका है। उस मौके का उपयोग करना आना चाहिए। सुना है मैंने कि एक घर में एक बहुत पुराना वाद्य रखा था, लेकिन घर के लोग पीढ़ियों से भूल गए थे उसको बजाने की कला। वह कोने में रखा था। बड़ा वाद्य था। जगह भी घिरती थी। घर में भीड़ भी बढ़ गई थी। और आखिर एक दिन घर के लोगों ने तय किया कि यह उपद्रव यहां से हटा दें।
वह उपद्रव हो गया था। क्योंकि जब संगीत बजाना न आता हो और उसके तारों को छेड़ना न आता हो.। तो कभी बच्चे छेड़ देते थे, तो घर में शोरगुल मचता था। कभी कोई चूहा कूद जाता, कभी कोई बिल्ली कूद जाती। आवाज होती। रात नींद टूटती। वह उपद्रव हो गया था।
तो उन्होंने एक दिन उसे उठाकर घर के बाहर कचरेघर में डाल दिया। लेकिन वे लौट भी नहीं पाए थे कि कचरेघर के पास से अनूठा संगीत उठने लगा। देखा, राह चलता एक भिखारी उसे उठा लिया है और बजा रहा है। भागे हुए वापस पहुंचे और कहा कि लौटा दो। यह वाद्य हमारा है। पर उस भिखारी ने कहा, तुम इसे फेंक चुके हो कचरेघर में। अगर यह वाद्य ही था, तो तुमने फेंका क्यों? और उस भिखारी ने कहा कि वाद्य उसका है, जो बजाना जानता है। तुम्हारा वाद्य कैसे होगा?
जीवन एक अवसर है। उससे संगीत भी पैदा हो सकता है। वही संगीत परमात्मा है। लेकिन बजाने की कला आनी चाहिए। अभी तो सिर्फ उपद्रव पैदा हो रहा है, पागलपन पैदा हो रहा है। आप गुस्सा होते हैं कि इस वाद्य को छोड़कर भाग जाओ, क्योंकि यह उपद्रव है।
यह वाद्य उपद्रव नहीं है। एक ही है जगत का अस्तित्व। जब? बजाना आता है, तो वह परमात्मा मालूम पड़ता है। जब बजाना नहीं आता, तो वह संसार मालूम पड़ता है।
अपने को बदलें। वह कला सीखें कि कैसे इसी वाद्य सै संगीत उठ आए। और कैसे ये पत्थर प्राणवान हो जाएं। और कैसे ये एक_एक फूल प्रभु की मुस्कुराहट बन जाए।
गुरुवार, 27 जुलाई 2023
न माया मिली न राम मिले
न माया मिली न राम मिले
किसी गाँव में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम हीर था। दूसरे का मोती. दोनों में गहरी दोस्ती थी और वे बचपन से ही खेलना-कूदना, पढना-लिखना हर काम साथ करते आ रहे थे।
जब वे बड़े हुए तो उनपर काम-धंधा ढूँढने का दबाव आने लगा. लोग ताने मारने लगे कि दोनों निठल्ले हैं और एक पैसा भी नही कमाते।
एक दिन दोनों ने विचार-विमर्श कर के शहर की ओर जाने का फैसला किया. अपने घर से रास्ते का खाना पीना ले कर दोनों भोर होते ही शहर की ओर चल पड़े।
शहर का रास्ता एक घने जंगल से हो कर गुजरता था. दोनों एक साथ अपनी मंजिल की ओर चले जा रहे थे. रास्ता लम्बा था सो उन्होंने एक पेड़ के नीचे विश्राम करने का फैसला किया. दोनों दोस्त विश्राम करने बैठे ही थे की इतने में एक साधु वहां पर भागता हुआ आया. साधु तेजी से हांफ रहा था और बेहद डरा हुआ था।
मोती ने साधु से उसके डरने का कारण पूछा।
साधु ने बताय कि-आगे के रास्ते में एक डायन है और उसे हरा कर आगे बढ़ना बहुत मुश्किल है, मेरी मानो तुम दोनों यहीं से वापस लौट जाओ।
इतना कह कर साधु अपने रास्ते को लौट गया।
हीरा और मोती साधु की बातों को सुन कर असमंजस में पड़ गए. दोनों आगे जाने से डर रहे थे। दोनों के मन में घर लौटने जाने का विचार आया, लेकिन लोगों के ताने सुनने के डर से उन्होंने आगे बढ़ने का निश्चेय किया।
आगे का रास्ता और भी घना था और वे दोनों बहुत डरे हुए भी थे. कुछ दूर और चलने के बाद उन्हें एक बड़ा सा थैला पड़ा हुआ दिखाई दिया. दोनों दोस्त डरते हुए उस थैले के पास पहुंचे।
उसके अन्दर उन्हें कुछ चमकता हुआ नज़र आया. खोल कर देखा तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही न रहा. उस थैले में बहुत सारे सोने के सिक्के थे. सिक्के इतने अधिक थे कि दोनों की ज़िंदगी आसानी से पूरे ऐश-ओ-आराम से कट सकती थी. दोनों ख़ुशी से झूम रहे थे, उन्हें अपने आगे बढ़ने के फैसले पर गर्व हो रहा था।
साथ ही वे उस साधु का मजाक उड़ा रहे थे कि वह कितना मूर्ख था जो आगे जाने से डर गया।
अब दोनों दोस्तों ने आपस में धन बांटने और साथ ही भोजन करने का निश्चेय किया।
दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गए. हीरा ने मोती से कहा कि वह आस-पास के किसी कुएं से पानी लेकर आये, ताकि भोजन आराम से किया जा सके।मोती पानी लेने के लिए चल पड़ा।
मोती रास्ते में चलते-चलते सोच रहा था कि अगर वो सारे सिक्के उसके हो जाएं तो वो और उसका परिवार हमेशा राजा की तरह रहेगा. मोती के मन में लालच आ चुका था।
वह अपने दोस्त को जान से मर डालने की योजना बनाने लगा. पानी भरते समय उसे कुंए के पास उसे एक धारदार हथियार मिला।उसने सोचा की वो इस हथियार से अपने दोस्त को मार देगा और गाँव में कहेगा की रास्ते में डाकुओं ने उन पर हमला किया था. मोती मन ही मन अपनी योजना पर खुश हो रहा था।
वह पानी लेकर वापस पहुंचा और मौका देखते ही हीरा पर पीछे से वार कर दिया. देखते-देखते हीरा वहीं ढेर हो गया।
मोती अपना सामान और सोने के सिक्कों से भरा थैला लेकर वहां से वापस भागा।
कुछ एक घंटे चलने के बाद वह एक जगह रुका। दोपहर हो चुकी थी और उसे बड़ी जोर की भूख लग आई थी. उसने अपनी पोटली खोली और बड़े चाव से खाना-खाने लगा।
लेकिन ये क्या ? थोड़ा खाना खाते ही मोती के मुँह से खून आने आने लगा और वो तड़पने लगा।
उसे एहसास हो चुका था कि जब वह पानी लेने गया था तभी हीरा ने उसके खाने में कोई जहरीली जंगली बूटी मिला दी थी. कुछ ही देर में उसकी भी तड़प-तड़प कर मृत्यु हो गयी।
अब दोनों दोस्त मृत पड़े थे और वो थैला यानी माया रूपी डायन जस का तस पड़ा हुआ था।
जी हाँ दोस्तों उस साधु ने एकदम ठीक कहा था कि आगे डायन है. वो सिक्कों से भरा थैला उन दोनों दोस्तों के लिए डायन ही साबित हुआ. ना वो डायन रूपी थैला वहां होता न उनके मन में लालच आता और ना वे एक दूसरे की जाना लेते।*
शिक्षा🌿
दोस्तों! यही जीवन का सच भी है. हम माया यानी धन-दौलत-सम्पदा एकत्रित करने में इतना उलझ जाते हैं कि अपने रिश्ते-नातों तक को भुला देते हैं. माया रूपी डायन आज हर घर में बैठी है. इसी माया के चक्कर में इंसान हैवान बन बैठा है. हमें इस प्रेरक कहानी से ये सीख लेनी चाहिए की हमें कभी भी पैसे को ज़रुरत से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए और अपनी दोस्ती… अपने रिश्तों के बीच में इसको कभी नहीं लाना चाहिए।
और हमारे पूर्वज भी तो कह गए हैं-
माया के चक्कर में दोनों गए, न माया मिली न राम
इसलिए हमें हमेशा माया के लोभ व धन के लालच से बचना चाहिए और ज्यादा ना सही पर कुछ समय भगवान् की अराधना में ज़रूर लगाना चाहिए।
मैं खुश हूं
एक महिला की आदत थी कि वह हर रोज सोने से पहले, अपनी दिन भर की खुशियों को एक काग़ज़ पर, लिख लिया करती थी... एक रात उन्होंने लिखा :
मैं खुश हूं, कि मेरा पति पूरी रात, ज़ोरदार खर्राटे लेता है, क्योंकि वह ज़िंदा है और मेरे पास है. ये ईश्वर का, शुक्र है...
मैं खुश हूं, कि मेरा बेटा सुबह सबेरे इस बात पर झगड़ा करता है, कि रात भर मच्छर- खटमल सोने नहीं देते. यानी वह रात घर पर गुजारता है, आवारागर्दी नहीं करता. ईश्वर का शुक्र है..
मैं खुश हूं, कि हर महीना बिजली, गैस, पेट्रोल, पानी वगैरह का, अच्छा खासा टैक्स देना पड़ता है. यानी ये सब चीजें मेरे पास, मेरे इस्तेमाल में हैं. अगर यह ना होती तो ज़िन्दगी कितनी मुश्किल होती ? ईश्वर का शुक्र है...
मैं खुश हूं, कि दिन ख़त्म होने तक, मेरा थकान से बुरा हाल हो जाता है. यानी मेरे अंदर दिन भर सख़्त काम करने की ताक़त और हिम्मत, सिर्फ ईश्वर की मेहर से है...
मैं खुश हूं, कि हर रोज अपने घर का झाड़ू पोछा करना पड़ता है, और दरवाज़े-खिड़कियों को साफ करना पड़ता है. शुक्र है, मेरे पास घर तो है. जिनके पास छत नहीं, उनका क्या हाल होता होगा ? ईश्वर का, शुक्र है...
मैं खुश हूं, कि कभी कभार, थोड़ी बीमार हो जाती हूँ. यानी मैं ज़्यादातर सेहतमंद ही रहती हूं. ईश्वर का शुक्र है..
मैं खुश हूं, कि हर साल त्यौहारों पर तोहफ़े देने में पर्स ख़ाली हो जाता है. यानी मेरे पास चाहने वाले, मेरे अज़ीज़, रिश्तेदार, दोस्त, अपने हैं, जिन्हें तोहफ़ा दे सकूं. अगर ये ना हों, तो ज़िन्दगी कितनी बेरौनक हो..? ईश्वर का शुक्र है...
मैं खुश हूं, कि हर रोज अलार्म की आवाज़ पर, उठ जाती हूँ. यानी मुझे हर रोज़, एक नई सुबह देखना नसीब होती है. ये भी, ईश्वर का ही करम है..
जीने के इस फॉर्मूले पर अमल करते हुए, अपनी और अपने लोगों की ज़िंदगी, सुकून की बनानी चाहिए. छोटी या बड़ी परेशानियों में भी, खुशियों की तलाश करिए, हर हाल में, उस ईश्वर का शुक्रिया कर, जिंदगी खुशगवार बनाएं..!!!
सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।
जय श्री राम
मृत्यु एक अटल सत्य हैं
एक राधेश्याम नामक युवक था | स्वभाव का बड़ा ही शांत एवम सुविचारों वाला व्यक्ति था | उसका छोटा सा परिवार था जिसमे उसके माता- पिता, पत्नी एवम दो बच्चे थे | सभी से वो बेहद प्यार करता था |
इसके अलावा वो कृष्ण भक्त था और सभी पर दया भाव रखता था | जरूरतमंद की सेवा करता था | किसी को दुःख नहीं देता था | उसके इन्ही गुणों के कारण श्री कृष्ण उससे बहुत प्रसन्न थे और सदैव उसके साथ रहते थे | और राधेश्याम अपने कृष्ण को देख भी सकता था और बाते भी करता था | इसके बावजूद उसने कभी ईश्वर से कुछ नहीं माँगा | वह बहुत खुश रहता था क्यूंकि ईश्वर हमेशा उसके साथ रहते थे | उसे मार्गदर्शन देते थे | राधेश्याम भी कृष्ण को अपने मित्र की तरह ही पुकारता था और उनसे अपने विचारों को बाँटता था |
एक दिन राधेश्याम के पिता की तबियत अचानक ख़राब हो गई | उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया | उसने सभी डॉक्टर्स के हाथ जोड़े | अपने पिता को बचाने की मिन्नते की | लेकिन सभी ने उससे कहा कि वो ज्यादा उम्मीद नहीं दे सकते | और सभी ने उसे भगवान् पर भरोसा रखने को कहा |
तभी राधेश्याम को कृष्ण का ख्याल आया और उसने अपने कृष्ण को पुकारा | कृष्ण दौड़े चले आये | राधेश्याम ने कहा – मित्र ! तुम तो भगवान हो मेरे पिता को बचा लो | कृष्ण ने कहा – मित्र ! ये मेरे हाथों में नहीं हैं | अगर मृत्यु का समय होगा तो होना तय हैं | इस पर राधेश्याम नाराज हो गया और कृष्ण से लड़ने लगा,गुस्से में उन्हें कौसने लगा।भगवान् ने भी उसे बहुत समझाया पर उसने एक ना सुनी।
तब भगवान् कृष्ण ने उससे कहा – मित्र ! मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ लेकिन इसके लिए तुम्हे एक कार्य करना होगा।राधेश्याम ने तुरंत पूछा कैसा कार्य ? कृष्ण ने कहा – तुम्हे ! किसी एक घर से मुट्ठी भर ज्वार लानी होगी और ध्यान रखना होगा कि उस परिवार में कभी किसी की मृत्यु न हुई हो।राधेश्याम झट से हाँ बोलकर तलाश में निकल गया।उसने कई दरवाजे खटखटायें।हर घर में ज्वार तो होती लेकिन ऐसा कोई नहीं होता जिनके परिवार में किसी की मृत्यु ना हुई हो।किसी का पिता,किसी का दादा,किसी का भाई,माँ,काकी या बहन | दो दिन तक भटकने के बाद भी राधेश्याम को ऐसा एक भी घर नहीं मिला।
तब उसे इस बात का अहसास हुआ कि मृत्यु एक अटल सत्य हैं।इसका सामना सभी को करना होता हैं।इससे कोई नहीं भाग सकता और वो अपने व्यवहार के लिए कृष्ण से क्षमा मांगता हैं और निर्णय लेता हैं जब तक उसके पिता जीवित हैं उनकी सेवा करेगा।
थोड़े दिनों बाद राधेश्याम के पिता स्वर्ग सिधार जाते हैं। उसे दुःख तो होता हैं लेकिन ईश्वर की दी उस सीख के कारण उसका मन शांत रहता हैं।
दोस्तों इसी प्रकार हम सभी को इस सच को स्वीकार करना चाहिये कि मृत्यु एक अटल सत्य हैं उसे नकारना मुर्खता हैं।दुःख होता हैं लेकिन उसमे फँस जाना गलत हैं क्यूंकि केवल आप ही उस दुःख से पिढीत नहीं हैं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति उस दुःख से रूबरू होती ही हैं।ऐसे सच को स्वीकार कर आगे बढ़ना ही जीवन हैं।
कई बार हम अपने किसी खास के चले जाने से इतने बेबस हो जाते हैं कि सामने खड़ा जीवन और उससे जुड़े लोग हमें दिखाई ही नहीं पड़ते।ऐसे अंधकार से निकलना मुश्किल हो जाता हैं।जो मनुष्य मृत्यु के सत्य को स्वीकार कर लेता हैं उसका जीवन भार विहीन हो जाता हैं और उसे कभी कोई कष्ट तोड़ नहीं सकता।वो जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ता जाता हैं..!!
जय जय श्री राधे
लालची आदमी
एक बार की बात है,दो विक्रेता राम और श्याम एक साथ दूर के एक शहर में आए। वे यहां वहां घूमकर हाथों से बने गहना बेचते थे।
जब वे दोनों एक साथ शहर आए तो उन्होंने तय किया कि, हम दोनों शहर के अलग-अलग हिस्से में गहने बेचेंगे।
इसके अलावा, एक बार एक विक्रेता शहर के उस हिस्से से गुजारने के बाद। दूसरा विक्रेता शहर के उस हिस्से में जाकर गहने बेच सकता हैं।
फिर, शाम गहने बिक्री करने के लिए एक गली से गुजर रहा था। वहां एक छोटी लड़की ने शाम को गहने के साथ देखा और उसे खरीदना चाहती थी।
लड़की दौड़ कर अपनी दादी के पास के गई। और गहने खरीदने के लिए अपनी दादी से पैसा मांगी।
दादी ने कहा, “हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम उचित भोजन खरीद सके। और मैं तुम्हारे लिए ब्रेसलेट कैसे खरीद सकती हूं?”
लड़की निराश हो गई थी। लेकिन, फिर भी अपने लिए एक ब्रेसलेट खरीदना चाहती थी। वह रसोई के अंदर गई और एक पुरानी काली प्लेट लेकर आई।
लड़की ने कहा, “दादी अगर हमारे पास पैसे नहीं है, तो क्या हम इस प्लेट के बदले में एक ब्रेसलेट नहीं खरीद सकते हैं?”
फिर, दादी ने विक्रेता को घर के अंदर आने के लिए कहा। शाम ने उसकी हालत देखी और समझ गया था कि वे बहुत गरीब है।
बूढ़ी औरत प्लेट को पकड़ते हुए कहा, “हमारे पास उसे खरीदने के लिए पैसे नहीं है। लेकिन आप इस प्लेट को ब्रेसलेट के बदले में ले सकते हैं।”
शाम उनके साथ ज्यादा समय बर्बाद करना नहीं चाहता था। उसने उस प्लेट को अच्छे से देखा कि यह सोने की बनी थी। फिर, वह बहुत लालची हो गया।
उसने मन ही मन सोचा, कि वह उस बूढ़ी औरत को धोखा दे सकता है। और बहुत कम मूल्य देखकर उस प्लेट को प्राप्त कर सकता है।
इसीलिए उसने एक योजना बनाई। कि वह अभी के लिए निकल जाएगा और बाद में वापस आएगा जब बह उस प्लेट के लिए और भी कम मूल्य स्वीकार करेंगे।
शाम ने कहा, “यह पुरानी और काली प्लेट एक ब्रेसलेट की लायक नहीं है। आपको इस प्लेट के बदले में कुछ नहीं मिलेगा।” और वहां से चला गया।
इस बीच, अन्य विक्रेता राम ने शहर का अपना हिस्सा समाप्त कर लिया। और अब शहर के दूसरे हिस्से की और चलने लगा।
चलते चलते राम उसी बुढ़िया के घर पहुंच गया। विक्रेता को देखकर छोटी लड़की फिर से अपनी दादी के पास गई और ब्रेसलेट मांगी।
छोटी लड़की की खुशी के लिए दादी विक्रेता के पास जाकर प्लेट दिखाई। और कहां, “क्या आप मुझे इस प्लेट के बदले में एक ब्रेसलेट दे सकते हैं?”
राम ने प्लेट की जांच की और पाया यह सोने की बनी हुई थी। उसने उत्तर दिया, “मैम, मेरा सारा सामान इस प्लेट के लायक नहीं है। यह बहुत महंगा है।”
बूढ़ी औरत चौक गई। लेकिन, विक्रेता के इमानदार जवाब को देखकर उसने कहा, “यदि आप इस प्लेट का मूल्य जानते है। तो मे इस प्लेट के बदले में जो कुछ भी आप दे सकते हैं उसे स्विकार करूंगी।”
फिर, राम ने अपना सारा सामान और पैसा निकाला। और कहां, “मैम, मैं आपको यह सब सामान और सारे पैसे दूंगा। अगर आप मुझे शहर लौटने के लिए कुछ सिक्के रखने दे।”
बुढ़िया ने उसका प्रस्ताव स्विकार कर लिया। राम ने शहर लौटने के लिए सोने की प्लेट और कुछ सिक्के लेकर चला गया।
कुछ समय बाद, शाम ने सोने की प्लेट लेने के लिए उस बूढ़ी औरत के पास गया। और कहां, ” मैंने अपना मन बदल लिया। मैं आपको उस बेकार काली प्लेट के लिए, एक ब्रेसलेट दे सकता हूं।
बूढ़ी औरत उस विक्रेता से बहुत नाराज थी। फिर भी शांति से जवाब दिया, “तुमने हमसे झूठ बोला। तुम चले जाने के बाद, एक दूसरा विक्रेता आया और उसने हमें प्लेट का मूल्य बताया।
और हमारे साथ व्यापार किया। वह प्लेट लेकर चला गया है,मुझे अब तुम्हारे साथ कोई लेना देना नहीं है।” शाम अब कुछ नहीं कर सकता था,उसके लालच ने उसे बहुत नुकसान पहुंचा है।
मित्रों... दूसरे को धोखा देना और लालची नहीं होना चाहिए, हमेशा इमानदारी से जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए..!
जय जय श्री राधे
भेड़चाल की दौड़
अमर एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का ग्रुप लीडर था। काम करते-करते उसे अचानक ऐसा लगा की उसके टीम में मतभेद बढ़ने लगे हैं और सभी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। इससे निबटने के लिए उसने एक तरकीब सोची।
उसने एक मीटिंग बुलाई और टीम के सभी सदस्यों से कहा – रविवार को आप सभी के लिए एक साइकिल रेस का आयोजन किया जा रहा है। कृपया सब लोग सुबह सात बजे एक नगर चौराहे पर इकठ्ठा हो जाइएगा।तय समय पर सभी अपनी-अपनी साइकलों पर इकठ्ठा हो गए।
अमर ने एक-एक करके सभी को अपने पास बुलाया और उन्हें उनका लक्ष्य बता कर स्टार्टिंग लाईन पर तैयार रहने को कहा।
कुछ ही देर में पूरी टीम रेस के लिए तैयार थी,सभी काफी उत्साहित थे और रूटीन से कुछ अलग करने के लिए अमर को थैंक्स कर रहे थे।अमर ने सीटी बजायी और रेस शुरू हो गयी।बॉस को आकर्षित करने के लिए हर कोई किसी भी क़ीमत पर रेस जीतना चाहता था। रेस शुरू होते ही सड़क पर अफरा-तफरी मच गयी,कोई दाएं से निकल रहा था, तो कोई बाएँ से,कई तो आगे निकलने की होड़ में दूसरों को गिराने से भी नहीं चूक रहें थे।
इस हो-हल्ले में किसी ने अमर के निर्देशों का ध्यान ही नहीं रखा और भेड़ चाल चलते हुए, सबसे आगे वाले साईकिलिस्ट के पीछे-पीछे भागने लगे।
पांच मिनट बाद अमर ने फिर से सीटी बजायी और रेस ख़त्म करने का निर्देश दिया। एका-एक सभी को रेस से पहले दिए हुए निर्देशों का ध्यान आया और सब इधर-उधर भागने लगें,लेकिन अमर ने उन्हें रोकते हुए अपने पास आने का इशारा किया।
सभी बॉस के सामने मुंह लटकाए खड़े थे और रेस पूरी ना कर पाने के कारण एक-दूसरे को दोष दे रहे थे।अमर ने मुस्कुराते हुए अपनी टीम की ओर देखा और कहा- अरे !! क्या हुआ? इस टीम में तो एक से एक चैंपियन थे,पर भला क्यों कोई भी व्यक्ति इस अनोखी साईकिल रेस को पूरा नहीं कर सका?
अमर ने बोलना जारी रखा- मैं बताता हूँ क्या हुआ दरअसल आप में से किसी ने भी अपने लक्ष्य की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। अगर आप सभी ने सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान दिया होता, तो आप सभी विजेता बन गये होते क्योंकि सभी व्यक्ति का लक्ष्य अलग-अलग था। सभी को अलग-अलग गलियों में जाना था। हर किसी का लक्ष्य भिन्न था। आपस में कोई मुकाबला था ही नहीं। लेकिन आप लोग सिर्फ एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगें रहें,जबकि आपने अपने लक्ष्य को तो ठीक से समझा ही नहीं,ठीक यहीं माहौल हमारी टीम का हो गया है।
आप सभी के अंदर वह अनोखी बात है,जिसकी वजह से टीम को आप की जरुरत है। लेकिन आपसी संघर्ष के कारण ना ही टीम और ना ही आप का विकास हो पा रहा है। आने वाला आपका कल,आपके हाथ में है। हम या तो एक-दूसरे की ताकत बन कर एक-दूसरे को विकास के पथ पर लें जा सकते है या आपसी संघर्ष के चक्कर में अपना और दूसरों का समय व्यर्थ कर सकते है।
मेरी आप सबसे यही सलाह है कि एक अकेले की तरह नहीं बल्कि एक संगठन की तरह काम करिए। याद रखिये अकेला खिलाड़ी बनने से कहीं ज्यादा ज़रूरी एक टीम का खिलाड़ी बनना है..!!
हम बदलेंगे,युग बदलेगा..!!
जय जय श्री राधे
आचरण और ज्ञान
किसी जंगल में एक संत महात्मा रहते थे. सन्यासियों वाली वेशभूषा थी और बातों में सदाचार का भाव, चेहरे पर इतना तेज था कि कोई भी इंसान उनसे प्रभावित हुए नहीं रह सकता था.
एक बार जंगल में शहर का एक व्यक्ति आया और वो जब महात्मा जी की झोपड़ी से होकर गुजरा तो देखा बहुत से लोग महात्मा जी के दर्शन करने आये हुए थे. वो महात्मा जी के पास गया और बोला कि आप अमीर भी नहीं हैं, आपने महंगे कपडे भी नहीं पहने हैं, आपको देखकर मैं बिल्कुल प्रभावित नहीं हुआ फिर ये इतने सारे लोग आपके दर्शन करने क्यों आते हैं?
महात्मा जी ने उस व्यक्ति को अपनी एक अंगूठी उतार कर दी और कहा कि आप इसे बाजार में बेच कर आएं और इसके बदले एक सोने की माला लेकर आना.
अब वो व्यक्ति बाजार गया और सब की दुकान पर जा कर उस अंगूठी के बदले सोने की माला मांगने लगा. लेकिन सोने की माला तो क्या उस अंगूठी के बदले कोई पीतल का एक टुकड़ा भी देने को तैयार नहीं था.
थक हार के व्यक्ति वापस महात्मा जी के पास पहुंचा और बोला कि इस अंगूठी की तो कोई कीमत ही नहीं है.
महात्मा जी मुस्कुराये और बोले कि अब इस अंगूठी को सुनार गली में जौहरी की दुकान पर ले जाओ. वह व्यक्ति जब सुनार की दुकान पर गया तो सुनार ने एक माला नहीं बल्कि अंगूठी के बदले पांच माला देने को कहा.
वह व्यक्ति बड़ा हैरान हुआ कि इस मामूली सी अंगूठी के बदले कोई पीतल की माला देने को तैयार नहीं हुआ, लेकिन ये सुनार कैसे 5 सोने की माला दे रहा है!
व्यक्ति वापस महात्मा जी के पास गया और उनको सारी बातें बतायीं.
अब महात्मा जी बोले कि चीजें जैसी ऊपर से दिखती हैं, अंदर से वैसी नहीं होती. ये कोई मामूली अंगूठी नहीं है बल्कि ये एक हीरे की अंगूठी है जिसकी पहचान केवल सुनार ही कर सकता था. इसलिए वह 5 माला देने को तैयार हो गया.ठीक वैसे ही मेरी वेशभूषा को देखकर तुम मुझसे प्रभावित नहीं हुए,लेकिन ज्ञान का प्रकाश लोगों को मेरी ओर खींच लाता है. व्यक्ति महात्मा जी की बातें सुनकर बड़ा शर्मिंदा हुआ..!!
*कथा का तात्पर्य*
कपड़ों से व्यक्ति की पहचान नहीं होती बल्कि आचरण और ज्ञान से व्यक्ति की पहचान होती है..!!
जय जय श्री राधे
जीवन जीने की कला
एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था।उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था।
एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?
उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे ?
जुलाहे ने कहा - दस रुपये की।
तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे ?
जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये।
लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा ?जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया।
अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ?
जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे।
अब लडके को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूँ।
संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ?
लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि ,मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।
संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे - तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा ? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।
लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।
जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा -
बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम ?तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।
कथासार :- प्रिय आत्मीय जनों जुलाहे की उँची सोच-समझ ने लड़के का जीवन बदल दिया..!!
जय जय श्री राधे
ईश्वर की आराधना कैसे करते हैं
एक पंडित जी समुद्री जहाज से यात्रा कर रहे थे, रास्ते में एक रात तुफान आने से जहाज को एक द्वीप के पास लंगर डालना पडा। सुबह पता चला कि रात आये तुफान में जहाज में कुछ खराबी आ गयी है, जहाज को एक दो दिन वहीं रोक कर उसकी मरम्मत करनी पडेगी।
पंडित जी नें सोचा क्यों ना एक छोटी बोट से द्वीप पर चल कर घूमा जाये, अगर कोई मिल जाये तो उस तक प्रभु का संदेश पहँचाया जाय और उसे
प्रभु का मार्ग बता कर प्रभु से मिलाया जाये।
तो वह जहाज के कैप्टन से इज़ाज़त ले कर एक छोटी बोट से द्विप पर गये, वहाँ इधर उधर घूमते हुवे तीन द्वीपवासियों से मिले। जो बरसों से उस सूने
द्विप पर रहते थे। पंडित जी उनके पास जा कर बातचीत करने लगा।
उन्होंने उनसे ईश्वर और उनकी आराधना पर चर्चा की । उन्होंने उनसे पूछा- “क्या आप ईश्वर को मानते हैं ?”
वे सब बोले- “हाँ..।“
फिर उन्होंने ने पूछा- “आप ईश्वर की आराधना कैसे करते हैं ?"
उन्होंने बताया- ''हम अपने दोनो हाथ ऊपर करके कहते हैं "हे ईश्वर हम आपके हैं, आपको याद करते हैं, आप भी हमें याद रखना ''
पंडित जी ने कहा- "यह प्रार्थना तो ठीक नही है।"
एक ने कहा- "तो आप हमें सही प्रार्थना सिखा दीजिये।"
उन्होंने ने उन सबों को धार्मिक पुस्तके पढना और प्रार्थना करना सिखाया। तब तक जहाज बन गया। पंडित जी अपने सफर पर आगे बढ गये।
तीन दिन बाद पंडित जी ने जहाज के डेक पर टहलते हुवे देखा, वह तीनो द्वीपवासी जहाज के पीछे-पीछे पानी पर दौडते हुवे आ रहे हैं। उन्होने हैरान होकर जहाज रुकवाया, और उन्हे ऊपर चढवाया।
फिर उनसे इस तरह आने का कारण पूछा- “वे बोले - ''!! आपने हमें जो प्रार्थना सिखाई थी, हम उसे अगले दिन ही भूल गये। इसलिये आपके पास उसे दुबारा सीखने आये हैं, हमारी मदद कीजिये।"
उन्होंने कहा- " ठीक है, पर यह तो बताओ तुम लोग पानी पर कैसे दौड सके?"
उसने कहा- " हम आपके पास जल्दी पहुँचना चाहते थे, सो हमने ईश्वर से विनती करके मदद माँगी और कहा - "हे ईश्वर!! दौड तो हम लेगें बस आप हमें गिरने मत देना ! और बस दौड पडे।“
अबपंडित जी सोच में पड गये.. उन्होने कहा- " आप लोग और ईश्वर पर आपका विश्वास धन्य है। आपको अन्य किसी प्रार्थना की आवश्यकता नहीं है। आप पहले कि तरह प्रार्थना करते रहें।"
ये कहानी बताती है कि ईश्वर पर विश्वास, ईश्वर की आराधना प्रणाली से अधिक महत्वपूर्ण है॥
संत कबीरदास ने कहा है -
“माला फेरत जुग गया, फिरा ना मन का फेर, कर का मन का डारि दे, मनका-मनका फेर॥“
"हे ईश्वर!! दौड तो हम लेंगे, बस आप हमें गिरने मत देना..!!
जय जय श्री राधे
हर व्यक्ति को सीखना और बच्चों को सिखाना चाहिए
बुधवार, 26 जुलाई 2023
मुश्किल समय में अपना आत्मविश्वास कभी नहीं खोएं
एक दिन एक कुत्ता जंगल में रास्ता खो गया..
तभी उसने देखा कि.. एक शेर उसकी तरफ आ रहा है.. कुत्ते की सांस रूक गयी.. उसने सोचा..
"आज तो मेरा, काम तमाम होगा..!"
उसने इधर उधर देखा तो कुछ सुखी हड्डियां पड़ी थी, उन हड्डियों को देखते ही उसके दिमाग में एक तरकीब आई,
और वो आते हुए शेर की तरफ पीठ कर के बैठ गया.. और एक सूखी हड्डी को चूसने लगा, और जोर जोर से बोलने लगा..
"वाह ! शेर को खाने का मज़ा ही कुछ और है.. एक और मिल जाए तो आज की दावत पूरी हो जायेगी !"
और उसने जोर से डकार मारी..
ये सुन कर, इस बार शेर सोच में पड़ गया.. उसने सोचा-
"ये कुत्ता तो शेर का शिकार करता है ! जान बचा कर भागने मे ही भलाइ है !"
और शेर वहां से जान बचा के भाग गया..
मगर पास के पेड़ पर बैठा एक बन्दर यह सब तमाशा देख रहा था.. उसने सोचा यह अच्छा मौका है, शेर को सारी कहानी बता देता हूँ .. शेर से दोस्ती भी हो जायेगी, और उससे ज़िन्दगी भर के लिए जान का खतरा भी दूर हो जायेगा.. वो फटाफट शेर के पीछे भागा..
पर कुत्ते ने बन्दर को जाते हुए देख लिया और समझ गया की कोई लोचा है..
उधर बन्दर ने शेर को सारी कहानी बता दी, की कैसे कुत्ते ने उसे बेवकूफ बनाया है..
शेर जोर से दहाडा और बोला -
"चल मेरे साथ, अभी उसकी लीला ख़तम करता हूँ".. और बन्दर को अपनी पीठ पर बैठा कर शेर कुत्ते की तरफ चल दिया.
कुत्ते ने शेर को आते देखा तो एक बार फिर उसके आगे जान का संकट आ गया, मगर कुत्ता फिर हिम्मत करके उसकी तरफ पीठ करके बैठ गया l
और जोर जोर से बोलने लगा..
"ये बंदर ना जाने कहां मर गया, उसको गए 1 घंटा हो गया.. साला एक शेर को फंसा कर नहीं ला सकता !"
यह सुनते ही शेर ने बंदर को वही पटका और उसको मार दिया और वापस पिछे भाग गया..
इस तरह कुत्ते ने अपनी हिम्मत और समझदारी से दो बार अपनी जान बचा ली, साथ ही अपने खिलाफ मौका उठाने का प्रयास कर रहे बंदर को भी अपने दुश्मन के हाथो ही मरवा दिया..
शिक्षा 1:- मुश्किल समय में अपना आत्मविश्वास कभी नहीं खोएं।
शिक्षा 2:- हार्ड वर्क के बजाय स्मार्ट वर्क ही करें क्योंकि यहीं जीवन की असली सफलता मिलेगी..!!
जय जय श्री राधे
श्रीराम का वनवास ख़त्म हो चुका था.
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श्रीराम का वनवास ख़त्म हो चुका था.
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एक बार श्रीराम ब्राम्हणों को भोजन करा रहे थे तभी भगवान शिव ब्राम्हण वेश में वहाँ आये. श्रीराम ने लक्ष्मण और हनुमान सहित उनका स्वागत किया और उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया.
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भगवान शिव भोजन करने बैठे किन्तु उनकी क्षुधा को कौन बुझा सकता था ? बात हीं बात में श्रीराम का सारा भण्डार खाली हो गया.
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लक्ष्मण और हनुमान ये देख कर चिंतित हो गए और आश्चर्य से भर गए. एक ब्राम्हण उनके द्वार से भूखे पेट लौट जाये ये तो बड़े अपमान की बात थी.उन्होंने श्रीराम से और भोजन बनवाने की आज्ञा मांगी.
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श्रीराम तो सब कुछ जानते हीं थे, उन्होंने मुस्कुराते हुए लक्ष्मण से देवी सीता को बुला लाने के लिए कहा। सीता जी वहाँ आयी और ब्राम्हण वेश में बैठे भगवान शिव का अभिवादन किया.
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श्रीराम ने मुस्कुराते हुए सीता जी को सारी बातें बताई और उन्हें इस परिस्थिति का समाधान करने को कहा.
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सीता जी अब स्वयं महादेव को भोजन कराने को उद्धत हुई. उनके हाथ का पहला ग्रास खाते हीं भगवान शिव संतुष्ट हो गए।
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भोजन के उपरान्त भगवान शिव ने श्रीराम से कहा कि आकण्ठ भोजन करने के कारण वे स्वयं उठने में असमर्थ हैं इसी कारण कोई उन्हें उठा कर शैय्या पर सुला दे.
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श्रीराम की आज्ञा से हनुमान महादेव को उठाने लगे मगर आश्चर्य, एक विशाल पर्वत को बात हीं बात में उखाड़ देने वाले हनुमान, जिनके बल का कोई पार हीं नहीं था, महादेव को हिला तक नहीं सके.
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भला रुद्रावतार रूद्र की शक्ति से कैसे पार पा सकते थे ? हनुमान लज्जित हो पीछे हट गए.
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फिर श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ये कार्य करने को आये. अब तक वो ये समझ चुके थे कि ये कोई साधारण ब्राम्हण नहीं हैं.
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अनंत की शक्ति भी अनंत हीं थी. परमपिता ब्रम्हा, नारायण और महादेव का स्मरण करते हुए लक्ष्मण ने उन्हें उठा कर शैय्या पर लिटा दिया.
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लेटने के बाद भगवान शिव ने श्रीराम से सेवा करने को कहा. स्वयं श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान के साथ भगवान शिव की पाद सेवा करने लगे.
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देवी सीता ने महादेव को पीने के लिए जल दिया. महादेव ने आधा जल पिया और बांकी जल का कुल्ला देवी सीता पर कर दिया.
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देवी सीता ने हाथ जोड़ कर कहा कि हे ब्राम्हणदेव, आपने अपने जूठन से मुझे पवित्र कर दिया. ऐसा सौभाग्य तो बिरलों को प्राप्त होता है.
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ये कहते हुए देवी सीता उनके चरण स्पर्श करने बढ़ी, तभी महादेव उपने असली स्वरुप में आ गए.
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महाकाल के दर्शन होते हीं सभी ने करबद्ध हो उन्हें नमन किया.
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भगवान शिव ने श्रीराम को अपने ह्रदय से लगाते हुए कहा कि आप सभी मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए. ऐसे कई अवसर थे जब किसी भी मनुष्य को क्रोध आ सकता था किन्तु आपने अपना संयम नहीं खोया.
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इसी कारण संसार आपको मर्यादा पुरुषोत्तम कहता है. उन्होंने श्रीराम को वरदान मांगने को कहा किन्तु श्रीराम ने हाथ जोड़ कर कहा कि आपके आशीर्वाद से मेरे पास सब कुछ है.
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अगर आप कुछ देना हीं चाहते हैं तो अपने चरणों में सदा की भक्ति का आशीर्वाद दीजिये.
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महादेव ने मुस्कुराते हुए कहा कि आप और मैं कोई अलग नहीं हैं किन्तु फिर भी देवी सीता ने मुझे भोजन करवाया है इसीलिए उन्हें कोई वरदान तो माँगना हीं होगा.
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देवी सीता ने कहा कि हे भगवान, अगर आप हमसे प्रसन्न हैं तो कुछ काल तक आप हमारे राजसभा में कथावाचक बनकर रहें.
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उसके बाद कुछ काल तक भगवान शिव श्रीराम की सभा में कथा सुना कर सबको कृतार्थ करते रहे..!!
जय श्री राम
अज्ञानता और लोभ का परिणाम
अज्ञानता और लोभ का परिणाम
एक कुम्हार को मिट्टी खोदते हुए अचानक एक हीरा मिल गया। उसने उसे अपने गधे के गले में बांध दिया। एक दिन एक बनिए की नजर गधे के गले में बंधे उस हीरे पर पड़ गई। उसने कुम्हार से उसका मूल्य पूछा। कुम्हार ने कहा, सवा सेर गुड़। बनिए ने कुम्हार को सवा सेर गुड़ देकर वह हीरा खरीद लिया। बनिए ने भी उस हीरे को एक चमकीला पत्थर समझा था लेकिन अपनी तराजू की शोभा बढ़ाने के लिए उसकी डंडी से बाँध दिया।
एक दिन एक जौहरी की नजर बनिए के उस तराजू पर पड़ गई। उसने बनिए से उसका दाम पूछा। बनिए ने कहा, पांच रुपए। जौहरी कंजूस व लालची था। हीरे का मूल्य केवल पांच रुपए सुनकर समझ गया कि बनिया इस कीमती हीरे को एक साधारण पत्थर का टुकड़ा समझ रहा है। वह उससे भाव-ताव करने लगा-पांच नहीं, चार रुपए ले लो। बनिये ने मना कर दिया क्योंकि उसने चार रुपए का सवा सेर गुड़ देकर खरीदा था। जौहरी ने सोचा कि इतनी जल्दी भी क्या है ? कल आकर फिर कहूँगा, यदि नहीं मानेगा तो पांच रुपए देकर खरीद लूँगा।
संयोग से दो घंटे बाद एक दूसरा जौहरी कुछ जरूरी सामान खरीदने उसी बनिए की दुकान पर आया। तराजू पर बंधे हीरे को देखकर वह चौंक गया। उसने सामान खरीदने के बजाए उस चमकीले पत्थर का दाम पूछ लिया। बनिए के मुख से पांच रुपए सुनते ही उसने झट जेब से निकालकर उसे पांच रुपये थमाए और हीरा लेकर खुशी-खुशी चल पड़ा। दूसरे दिन वह पहले वाला जौहरी बनिए के पास आया। पांच रुपए थमाते हुए बोला- लाओ भाई दो वह पत्थर।
बनिया बोला- वह तो कल ही एक दूसरा आदमी पांच रुपए में ले गया। यह सुनकर जौहरी ठगा सा महसूस करने लगा। अपना गम कम करने के लिए बनिए से बोला- "अरे मूर्ख ! वह साधारण पत्थर नहीं, एक लाख रुपए कीमत का हीरा था।"
बनिया बोला, "मुझसे बड़े मूर्ख तो तुम हो। मेरी दृष्टि में तो वह साधारण पत्थर का टुकड़ा था, जिसकी कीमत मैंने चार रुपए मूल्य के सवा सेर गुड़ देकर चुकाई थी। पर तुम जानते हुए भी एक लाख की कीमत का वह पत्थर, पांच रुपए में भी नहीं खरीद सके।"
शिक्षा:-
मित्रों, हमारे साथ भी अक्सर ऐसा होता है हमें हीरे रूपी सच्चे शुभ् चिन्तक मिलते हैं लेकिन अज्ञानतावश पहचान नहीं कर पाते और उसकी उपेक्षा कर बैठते हैं, जैसे इस प्रसंग में कुम्हार और बनिए ने की। और कभी पहचान भी लेते हैं अपने अहंकार के चलते तुरन्त स्वीकार नहीं कर पाते और परिणाम पहले जौहरी की तरह हो जाता है और पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं हो पाता..!!
सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।
वनवास न होता तो संसार कैसे सीखता कि क्या होता है... भाइयों_का_सम्बंध
वनवास न होता तो संसार कैसे सीखता कि क्या होता है... भाइयों_का_सम्बंध
वनवास समाप्त हुए वर्षों बीत गए थे, प्रभु श्रीराम और माता सीता की कृपा छाया में अयोध्या की प्रजा सुखमय जीवन जी रही थी। युवराज भरत अपनी कर्तव्यपरायणता और न्यायप्रियता के लिए ख्यात हो चुके थे।
एक दिन संध्या के समय सरयू के तट पर तीनों भाइयों संग टहलते श्रीराम से महात्मा भरत ने कहा, “एक बात पूछूं भइया? माता कैकई ने आपको वनवास दिलाने के लिए मंथरा के साथ मिल कर जो षड्यंत्र किया था, क्या वह राजद्रोह नहीं था? उनके षड्यंत्र के कारण एक ओर राज्य के भावी महाराज और महारानी को चौदह वर्ष का वनवास झेलना पड़ा तो दूसरी ओर पिता महाराज की दु:खद मृत्यु हुई। ऐसे षड्यंत्र के लिए सामान्य नियमों के अनुसार तो मृत्युदंड दिया जाता है, फिर आपने माता कैकई को दण्ड क्यों नहीं दिया?"
राम मुस्कुराए। बोले, “जानते हो भरत, किसी कुल में एक चरित्रवान और धर्मपरायण पुत्र जन्म लें ले, तो उसका जीवन उसके असँख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम जैसे महात्मा को जन्म दिया हो उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता हैं भरत ?"
भरत संतुष्ट नहीं हुए। कहा “यह तो मोह है भईया, और राजा का दण्डविधान मोह से मुक्त होता हैं। एक राजा की तरह उत्तर दीजिये कि आपने माता को दंड क्यों नहीं दिया, समझिए कि आपसे यह प्रश्न आपका अनुज नहीं, अयोध्या का एक सामान्य नागरिक कर रहा है।"
राम गम्भीर हो गए। कुछ क्षण के मौन के बाद कहा, “अपने सगे-सम्बन्धियों के किसी अपराध पर कोई दण्ड न देना ही, इस सृष्टि का कठोरतम दण्ड है भरत!"
माता कैकई ने अपनी एक भूल का बड़ा कठोर दण्ड भोगा है। वनवास के चौदह वर्षों में हम चारों भाई अपने-अपने स्थान से परिस्थितियों से लड़ते रहे हैं, पर माता कैकई हर क्षण मरती रही हैं।
अपनी एक भूल के कारण उन्होंने अपना पति खोया, अपने चार बेटे खोए, अपना समस्त सुख खोया, फिर भी वे उस अपराधबोध से कभी मुक्त न हो सकीं। वनवास समाप्त हो गया, तो परिवार के शेष सदस्य प्रसन्न और सुखी हो गए, पर वे कभी प्रसन्न न हो सकीं। कोई राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दंड क्या दे सकता है?
मैं तो सदैव यह सोच कर दुःखी हो जाता हूँ, कि मेरे कारण अनायास ही मेरी माँ को इतना कठोर दण्ड भोगना पड़ा।
राम के नेत्रों में जल उतर आया था, और भरत आदि भाई मौन हो गए थे।
राम ने फिर कहा “और उनकी भूल को अपराध समझना ही क्यों भरत! यदि मेरा वनवास न हुआ होता तो संसार भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों के अतुल्य भ्रातृप्रेम को कैसे देख पाता। मैंने तो केवल अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन मात्र किया था, पर तुम दोनों ने तो मेरे स्नेह में चौदह वर्ष का वनवास भोगा। वनवास न होता तो यह संसार सीखता कैसे कि भाइयों का सम्बन्ध होता कैसा है।"
भरत के प्रश्न मौन हो गए थे। वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए।
सदैव प्रसन्न रहिये।
बुधवार, 5 जुलाई 2023
क्रूर मकान मालिक, बूढ़े को पैसे के लिए किराए के घर से बाहर निकाल देता है।
बुधवार, 21 जून 2023
भगवान जगन्नाथ जी कि जय
बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही,अंग्रेजी इत्र लगाने लगे!
शनिवार, 10 जून 2023
भाग्य से ज्यादा समय से पहले किसी को कुछ मिला नहीं
शनिवार, 3 जून 2023
आत्म साक्षात्कार
पंडित जी आँखों में आँसू लिए मंदिर में प्रभु श्रीराम के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। और रोते हुए बोले,
"मुझे अब पता चला प्रभु, वो विशम्भर नाथ और कोई नहीं आप ही थे,
वो वृद्धा जानकी माता थीं, आपसे मेरा और मेरी बेटी का कष्ट देखा नहीं गया न?
दुनिया इस बात को माने या न माने पर आप ही आकर मुझसे बातें कर के मेरे दुःख को हरे प्रभु।"
राम जानकी की प्रतिमा जैसे मुस्कुराते हुए अपने भक्त पंडित जी को देखे जा रही थी।
पुत्री का विवाह
बनारस की गलियों में एक राम जानकी मंदिर है, जिसकी देख रेख मंदिर के पुजारी पंडित दीनदयाल के हाथों थी। पंडितजी भी अपनी पूरी जिंदगी इस राम जानकी मंदिर को समर्पित कर चुके थे।
संपत्ति के नाम पर उनके पास एक छोटा सा मकान और परिवार में उनकी पत्नी कमला और विवाह योग्य बेटी पूजा ।
मन्दिर में जो भी दान आता वही पंडित जी और उनके परिवार के गुजारे का साधन था। बेटी विवाह योग्य जो हो गयी थी और पंडित जी ने हर मुकम्मल कोशिश की जो शायद हर बेटी का पिता करता। पर वही दान दहेज़ पे आकर बात रुक जाती।
पंडित जी अब निराश हो चुके थे। सारे प्रयास कर के हार चुके थे।
एक दिन मंदिर में दोपहर के समय जब भीड़ न के बराबर होती है उसी समय चुपचाप राम सीता की प्रतिमा के सामने आँखें बंद किये अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचते हुए उनकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे।
तभी उनकी कानों में एक आवाज आई, "नमस्कार, पंडित जी!"
झटके में आँखें खोलीं तो देखा सामने एक बुजुर्ग दंपत्ति हाथ जोड़े खड़े थे। पंडित जी ने बैठने का आग्रह किया। पंडित जी ने गौर किया कि वो वृद्ध दंपत्ति देखने में किसी अच्छे घर के लगते थे। दोनों के चेहरे पर एक सुन्दर सी आभा झलक रही थी।
"पंडित जी आपसे एक जरूरी बात करनी है।" वृद्ध पुरूष की आवाज़ सुनकर पंडित जी की तंत्रा टूटी।
"हाँ हाँ कहिये श्रीमान।" पंडित जी ने कहा।
उस वृद्ध आदमी ने कहा, "पंडित जी, मेरा नाम विशम्भर नाथ है, हम गुजरात से काशी दर्शन को आये हैं, हम निःसंतान हैं, बहुत जगह मन्नतें माँगी पर हमारे भाग्य में पुत्र/पुत्री सुख तो जैसे लिखा ही नहीं था।"
"बहुत सालों से हमनें एक मन्नत माँगी हुई है, एक गरीब कन्या का विवाह कराना है, कन्यादान करना है हम दोनों को, तभी इस जीवन को कोई सार्थक पड़ाव मिलेगा।"
वृद्ध दंपत्ति की बातों को सुनकर पंडित जी मन ही मन इतना खुश हुए जा रहे थे जैसे स्वयं भगवान ने उनकी इच्छा पूरी करने किसी को भेज दिया हो।
"आप किसी कन्या को जानते हैं पंडित जी जो विवाह योग्य हो पर उसका विवाह न हो पा रहा हो। हम हर तरह से दान दहेज देंगे उसके लिए और एक सुयोग्य वर भी है।" वृद्ध महिला ने कहा।
पंडित जी ने बिना एक पल गंवाए अपनी बेटी के बारे में सब विस्तार से बता दिया। वृद्ध दम्पत्ति बहुत खुश हुए, बोले, "आज से आपकी बेटी हमारी हुई, बस अब आपको उसकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, उसका विवाह हम करेंगे।"
पंडित जी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उनकी मनचाही इच्छा जैसे पूरी हो गयी हो।
विशम्भर नाथ ने उन्हें एक विजिटिंग कार्ड दिया और बोला, "बनारस में ही ये लड़का है, ये उसके पिता के आफिस का पता है, आप जाइये। ये मेरे रिश्ते में मेरे साढ़ू लगते हैं।
बस आप जाइये और मेरे बारे में कुछ न बताइयेगा। मैं बीच में नहीं आना चाहता। आप जाइये, खुद से बात करिये।
पंडित जी घबराए और बोले, "मैं कैसे बात करूँ, न जान न पहचान, कहीं उन्होंने मना कर दिया इस रिश्ते के लिए तो..??"
वृद्ध दंपत्ति ने मुस्कुराते हुए आश्वासन दिया कि, "आप जाइये तो सही। लड़के के पिता का स्वभाव बहुत अच्छा है, वो आपको मना नहीं करेंगे।"
इतना कह कर वृद्ध दंपत्ति ने उनको अपना मोबाइल नंबर दिया और चले गए। पंडित जी ने बिना समय गंवाए लड़के के पिता के आफिस का रुख किया।
मानो जैसे कोई चमत्कार सा हो गया। 'ऑफिस में लड़के के पिता से मिलने के बाद लड़के के पिता की हाँ कर दी', 'तुरंत शादी की डेट फाइनल हो गयी', पंडित जी जब जब उस दंपत्ति को फोन करते तब तब शादी विवाह की जरूरत का दान दहेज उनके घर पहुँच जाता।
सारी बुकिंग, हर तरह का सहयोग बस पंडित जी के फोन कॉल करते ही उन तक पहुँचने लगते।
अंततः धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। पंडित जी की लड़की कमला विदा होकर अपने ससुराल चली गयी।
पंडित जी ने राहत की साँस ली। पंडित जी अगले दिन मंदिर में बैठे उस वृद्ध दम्पत्ति के बारे में सोच रहे थे कि कौन थे वो दम्पत्ति जिन्होंने मेरी बेटी को अपना समझा, बस एक ही बार मुझसे मिले और मेरी सारी परेशानी हर लिए।
यही सोचते-सोचते पंडित जी ने उनको फोन मिलाया। उनका फोन स्विच ऑफ बता रहा था। पंडित जी का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
उन्होंने मन ही मन तय किया कि एक दो दिन और फोन करूँगा नहीं बात होने पर अपने समधी जी से पूछूँगा जरूर विशम्भर नाथ जी के बारे में।
अंततः लगातार 3 दिन फ़ोन करने के बाद भी विशम्भर नाथ जी का फ़ोन नहीं लगा तो उन्होंने तुरंत अपने समधी जी को फ़ोन मिलाया।
ये क्या….
पंडित जी आँखों में आँसू लिए मंदिर में प्रभु श्रीराम के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। और रोते हुए बोले,
"मुझे अब पता चला प्रभु, वो विशम्भर नाथ और कोई नहीं आप ही थे,
वो वृद्धा जानकी माता थीं, आपसे मेरा और मेरी बेटी का कष्ट देखा नहीं गया न?
दुनिया इस बात को माने या न माने पर आप ही आकर मुझसे बातें कर के मेरे दुःख को हरे प्रभु।"
राम जानकी की प्रतिमा जैसे मुस्कुराते हुए अपने भक्त पंडित जी को देखे जा रही थी।
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